आज से चार साल पहले मै अपने आप को ढूंढता, हिमाचल के इस इलाके में आया और फिर अगले चार महीने के लिए यहीं का हो कर रह गया। जैसे अकेली उफनती पार्वती, अपने रास्ते बनाते हुए व्यास को ढूंढ लेती है, मैंने तब अपने सोलो ट्रेवल का एक अभिन्न पड़ाव ढूंढा था। तब से आजतक, ये जगह काफी बदल गई है। लोग बढ़ गए, ट्रैफिक की हालात बिगड़ गई और कसोल की गंदगी देख कर लगता है, जैसे मै जिस कसोल में रहा था वो कोई और ही जगह थी।
चार साल पहले मैंने कुछ हिप्पयों के साथ खीरगंगा की यात्रा की थी और तब से ले कर आजतक न जाने कितनी बार मै इस ट्रेक पे अकेला जा चूका हूँ। बस, कभी कुछ बताने को नहीं रहा, जो किसी और ने एक्सपीरियंस न करा हो।
खीरगंगा अर्थात, खीर सीं सफ़ेद गंगा, पार्वती घाटी के ऊपर स्थीत एक छोटा सा मैदान है जो गर्म पानी के कुंड के लिए प्रसिद्ध है। सोलो ट्रेवेलर्स के लिये पार्वती घाटी असंख्य विकल्प प्रस्तुत करती है। चाहे वो कसोल के चिलम के नशे में चूर हिप्पी हो या मनिकरण आए श्रद्धालु, पार्वती की धाराए सबको लुभा जाती है। पार्वती नदी अपने उफान पर खीर जैसी सफ़ेद लगती है। मचलती, उमड़ती ये नदी जब तक कसोल पहुचती है तब तक तो इसका प्रवाह काफी धीमा हो चूका होता है। खीर जैसी सफ़ेद रंग के वजह से इस जगह को खीरगांगा बुलाया जाता है।
खीरगंगा की ट्रैकिंग बरशैणी से शुरू होती है। बस करके यहाँ पर पहुचना अपने आप में एक परिश्रम है। आप एक बस पहले दिल्ली से भुंतर के लिए लेते हैं। अगर किस्मत अच्छी रही तो आपको तो आपको बरशैणी के लिए सीधी बस भुंतर से मिल जाएगी, अगर नहीं तो फिर भुंतर से कसोल और फिर वहां से अगली बस का इंतज़ार करने में कितना वक्त निकल जाए, इसका कोई अंदाजा नहीं होता। हाँ, एक बस 2 बजे के आस पास आनी पक्की है। अब उस बस में कितने यात्री पहले से होंगे वो बता पाना थोड़ा मुश्किल है।
यात्रियों से ठसाठस भरी बस आती है और मेरे साथ कुछ 20 लोग इस बस में चढ़ जाते है। एक पतले दुबले हिप्पी की जटाए (dreadlocks) ने उसके साइज से ज्यादा जगह घेर रखी है। मेरा मन कर रहा है की कंडक्टर से पुछु अगर इसका एक्स्ट्रा टिकट लगेगा या नहीं। बस में पैर रखने की भी जगह नहीं, फिर भी मै खुद को थोड़ा एडजस्ट करने की कोशिश करता हूँ, इतने में मुझे कहीं से बिल्ली की म्याऊ म्याऊ सुनाई देती है। इधर उधर देखने पर पता चलता है की एक हिप्पी जोड़े के साथ उनको बिल्ली भी सफर कर रही है।
कुछ 40 मिनट के बाद मै बरशैणी पहुचता हूँ, शाम हो चूकी है, लग रहा हैं जैसे बारिश होगी। मुझे अभी कल्गा तक जाना है, जहाँ से मेरा कल का ट्रेक शुरू होगा। चलते चलते बूंदे टपकने लगती है, आसमान काला होने लगता है, थोड़ी दूर पर बर्फ से ढंकी पिन पार्वती घाटी की चोटियाँ मुझे आवाज़ देती है, नीचे पार्वती नदी की धाराए अपना अलग ही राग गाती है।
कल्गा, पुल्गा और तोश, बरशैणी के पास बसे तीन गांव है। यहाँ न कसोल जैसी गंदगी है और ना ही वैसी भीड़। अब कसोल में भीड़ पढ़ी और सैलानी चालल तक पहुच गए, तो मैं अपना बोरिया बिस्तर बांध कर तोश में रुकने लगा। कल्गा मैं पहली बार रुक रहा हूँ।
गंगा की तरह, पार्वती नदी भी कई धाराओ के साथ मिल कर बनती है। हर धारा, जब पार्वती से मिलती है तो ऐसा लगता है जैसे वो उसके उफान को और जीवन दे रही है| पार्वती का आकार इतना बढ़ जाता है, की ऐसा लगता है जैसे विशाल चट्टान भी अभी टूट कर इसके अंदर ही बिखर जाएंगे। ऐसे ही थोड़ी दूर चलने पर आप पर्वती हाइड्रो इलेक्ट्रिक पावर प्रोजेक्ट के पास पहुचते हैं और निचे तोश नाला पार्वती में मिल जाता है। मै इस पुल को पार करता हुआ एक चढ़ाई के पास पहुचता हूँ, कुछ स्कूल से लौट रही लडकिया मेरी गाइड बन कर मुझे कल्गा तक ले जाती है। ये छोटा सा गांव किसी जन्नत से कम नहीं।
कल्गा एक छोटा सा गांव है जहाँ ज्यादा से ज्यादा 12 मकान होंगे। चारो तरफ पहाड़ और हरे भरे सेब के खेत मन लुभा जाते हैं। एक पल के लिए मै सोचता हूँ की खीरगांगा छोड़ो, यहीं रुक जाते हैं। लेकिन पहले ठीकाना तो ढूंढ लू। इधर उधर घूमने के बाद एक छोटा सा गेस्ट हाउस दिखता है, बाहर एक भैया आराम से चिल्लम मार रहे हैं। दीवारों पर ग्राफिटी बानी हुई है, लगता है जैसे अब यहाँ से कहीं नहीं जाना।
‘भैया कमरा मिलेगा?’ मै पूछता हूँ,
‘हाँ हाँ क्यों नहीं?’ जवाब आता है, ‘अकेले आ रहे हो?’
‘हाँ, अकेला हूँ, किराया कितना है?’
‘अकेले हो तो 200 दे देना, 300 में डिनर और ब्रेकफास्ट भी मिलेगा।’
मुझे विश्वास नहीं हुआ की इतना खूबसूरत कमरा मुझे इतने कम में मिल गया। रात को मै दाल चावल खा कर सो गया। सुबह 7 बजे से मुझे ट्रेकिंग शुरू करनी है।
कल्गा से खीरगंगा का एक शॉर्टकट है। यहाँ से खीरगंगा ट्रेक का रास्ता केवल 10 किलोमीटर का हो जाता है। सुबह की धुप के साथ मै चलना शुरू करता हूँ, कल्गा को पीछे छोड़ कर मै एक हरे भरे मैदान में खुद को पता हूँ। वहां एक साइनबोर्ड कहता है, वॉटरफॉल कैफ़े 3 किलोमीटर। मैं सही रस्ते पर हूँ। धीरे धीरे उस मैदान को छोड़ अब मैं एक संकरे रास्ते पर चल रहा हूँ, कहीं दूर से पार्वती नदी के गरजने की आवाज़ आ रही है। अरे, ये पार्वती नहीं, ये तो एक झरना है, उस पर एक छोटा सा पूल और उस पूल को पार करना है। एक बार जूता फिसला और मैं सीधा कसोल निकलूंगा। धीरे धीरे चलकर, मैंने पुलिया भी पार कर ली|
या तो मैं जल्दी निकल गया, या फिर इस ट्रेक पर कोई नहीं जाता। मुझे अंदाज़ा भी नहीं था की मैं उस रस्ते पर कितनी देर से अकेला चलता जा रहा था। मन में आया की कहीं मैं रास्ता तो नहीं भटक गया। ट्रेक पर कई बार एक पतला सा रास्ता छूट जाता है और हम कहीं और ही पहुच जाते है। मरता क्या ना करता, मैंने चलना जारी रखा। थोड़ी दूर एक पेड़ पर पढ़ा तो लगा की मई वॉटरफॉल कैफ़े के आस पास हूँ।
खीरगंगा का रास्ता कई झरनों से भरा हुआ है। इन सारे झरनों के ऊपर पल बंधे हुए है जिनको पार करते हुए आपको रास्ता तय करना होता है। वॉटरफॉल कैफ़े ऐसे ही एक झरने के पास है। इसी जगह पर मैंने 1 घंटे में पहली बार दूसरे इंसानो को देखा। मैंने एक बड़ा सा झरना और उसके ऊपर बना छोटा से पुल भी देखा जिसको पार करके मुझे दूसरी तरफ जाना था। मन में आवाज़ आती है की बेटा, बहुत ट्रैकिंग हो गया, कुछ हुआ तो ऑफिस कौन जाएगा?
झरने का पानी शहद सा मीठा है। मैं अपना बोतल भरता हूँ और आगे के लिए निकल लेता हूँ। जो थोड़ा डर था अब वो भी चला गया, खीरगंगा भी 5 किलोमीटर रह गया।
कुछ दो किलोमीटर चलने के बाद मुझे पता चलता है की मैं रास्ता भटक चूका हूँ, मैं एक दूसरे झरने के पास आ गया जो की पिछले वाले से कहीं विशाल था। डर मुझे झरने से नहीं लगा, डर तो तब लगा जब वहां पर मैंने एक साइनबोर्ड पढ़ा जो एक ट्रेकर को समर्पित था। उसके ठीक उसी जगह अपनी जान गावाई थी। कौन बेवकूफ इंसान सावधान का बोर्ड ठीक वहां लगता है जहाँ खतरा होता है? थोड़ा पहले लगा देता तो मैं यहाँ तक पहुचता ही नहीं।
आखिरकार, मैं खीरगंगा पहुच गया। बारिश वाला मौसम बदल कर, खतरनाक गर्मी वाले मौसम में तब्दील हो चूका था। सल्फर स्प्रिंग्स में नहाने का इससे अच्छा मौका नहीं मिलने वाला था। हिन्दू श्रद्धालुओ के लिए खीरगंगा एक पवित्र स्थान है। कहा जाता है की आदि ब्रह्मा, त्रियुगी नारायण और कसौली नारायण, यहाँ महादेव शिव से, हर साल मिलने आते है। धार्मिक स्थान होने के अलावा खीरगंगा चरस की खेती के लिए भी मशहूर है। कई हिप्पी यहाँ टेंट लगा कर केवल चिल्लम मारने के लिए हफ़्तों रह जाते है।
अभी मैं नहा कर लौटा ही था और रुकने के लिए जगह ढूंढ रहा था की मुझे पता चला की मेरे पास केवल 300 रूपए रखे हुए है। कल्गा जल्दी पहुचने की जल्दी में, मैं कसोल से पैसे निकलना भूल गया था। अगर मैं वहां रुक गया तो सुबह लौटने के लिए लिए मेरे पास कुछ भी नहीं बचेगा।
और यूँ शुरू हुआ, एक सिलसिला गलत फैसलो का।
एक प्लेट मैगी और निम्बू पानी के बाद मैंने नीचे उतारना शुरू किया। दिन के कुछ 11 बज रहे थे और मेरे अंदाज़े के अनुसार अगर मैं 3 बजे तक कल्गा पहुच जाता तो मुझे 5 बजे वाली कसोल की बस बरशैणी से मिल जाती। बस हुआ कुछ ऐसा की मैं कल्गा पंहुचा ही नहीं।
एक पॉइंट पर रास्ता दो हिस्सो में कट जाता है। एक रास्ता रुद्रनाग के तरफ जाता है और दूसरा कल्गा के तरफ। मैं रास्ता भटक कर रुद्रनाग वाले रस्ते पर चला आया। ऐसा करने में मेरे 10 किलोमीटर का रास्ता 16 किलोमीटर का हो गया। खीरगंगा जाने वाले नौसिखिये ट्रेकर्स, रुद्रनाग में रात भर के लिए रुकते हैं। रुद्रनाग जल प्रपातो के लिए भी मशह्र्र है, इसमें से एक प्रपात से सूरज की रौशनी कट कर के इंद्रधनुष बनाती है। ये एक अत्यंत की खूबसूरत नज़ारा है।
मेरी बदकिस्मती का सिलसिला अभी ख़तम नहीं हुआ है। बरशैणी अभी भी 10 किलोमीटर दूर है और मुझे अंदर से ‘रेस अगेंस्ट टाइम’ जैसी फीलिंग आ रही है। अपने आप पर गुस्सा भी आ रहा है की ऐसी छोटी सी चीज़ मेरे दिमाग से कैसे छूट सकती है। वैसे अगर छूटती नहीं तो मैं ये ब्लॉग नहीं लिख रहा होता और मेरा खीरगंगा का अनुभव मेरे बाकि पुराने अनुभवो जैसा ही हो कर रह जाता।
4:30 बज रहे है, मैं बरशैणी में खड़ा हूँ, लोग बता रहे हैं की आखिरी बस 5 बजे तक आ जाएगी। मुझे अपने आप पर भरोसा नहीं हो रहा की मैंने एक दिन में 26 किलोमीटर का सफर तय किया। मैं एक कोका कोला खरीद कर अपनी विक्ट्री सेलिब्रेट करता हूँ।
6 बजे है। मैं कसोल के बाहर एक लंबी जैम में फंसा हुआ हूँ। मै भूल गया था की आज रविवार है और इस दिन कसोल टूरिस्ट्स से भरा होता है। बढ़ते टूरिज्म ने कसोल की हालात ख़राब कर दी है। कसोल पर जो अकेला एटीएम है वो भी आउट ऑफ़ कॅश हो गया है। मुझे अब भुंतर जाना होगा पैसे निकालने।
कभी कभी गुस्सा आता है और दुःख भी होता है। इतनी भीड़ की वजह से irresponsible tourism का live example बन कर रह गया है कसोल। लोग चौक पर चिल्लम मार कर बेसुध पड़े है। एक लड़को का ग्रुप कुछ लड़कियों को परेशान कर रहा है। एक छोटे से रस्ते पर हज़ारो गाड़िया लगी है और बस वाले उनको तोड़ते हुए चले जा रहे है। कसोल का माहौल से मेरा दम घुटने सा लगता है।
बढिया यात्रा रही यह, थोडा तकलीफ़ हुई रास्ता भटके व दुर्गम रास्ता भी पकडा पर अंत में आप कह सकते है की यह एक अलग तरह की यात्रा थी और भीड से दूर भी।
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